बाबा धाम के पंडित द्वारा बताए गए छठ पूजा की विधि । सूर्य का पर्व छठी मैया को जल चढ़ाने से होते है सबके काल कष्ट दूर।

सूर्य के साथ उनकी पत्नियों की भी होती है पूजा 


छठ में सूर्य के साथ-साथ उनकी दोनों पत्नियों ऊषा और प्रत्यूषा की संयुक्त आराधना होती है। सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को और प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। इस पर्व में किसी मूर्ति की नहीं बल्कि प्रत्यक्ष तौर पर प्रकृति की पूजा की जाती है। कब और कैसे शुरू हुआ व्रत भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण आदि में की गई है। यही नहीं, सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में मिलता है। 


माता सीता ने भी किया छठ व्रत 


शंकराचार्य मंदिर के प्रमुख आत्मप्रकाश शास्त्री कहते हैं कि लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना. के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान श्री राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की थी। माता सीता ने भी छठ व्रत किया था। इसका उल्लेख'आनंद रामायण' में भी मिलता है। महाभारत काल में मगध नरेश जरासंध के किसी पूर्वज को कुष्ठ रोग हो गया था। तब मगध के ब्राह्मणों ने छठ का व्रत रखा था जिससे उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया था। इसी तरह भगवान कृष्ण के पौत्र साम्ब
को कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था। 

द्रौपदी ने भी की थी सूर्य उपासना 


महाभारत की एक कथा के अनुसार सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। आज भी छठ में व्रती अर्घ्य दान के समय यही पद्धति अपनाते हैं और घंटों जल में खड़े रह कर भगवान आदित्य की आराधना करते हैं। महाभारत की ही एक अन्य कथा के अनुसार जब महाराज युधिष्ठिर जुए में अपना सारा राज्य हार गए थे तब द्रौपदी ने राज्य प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना की थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार छठ सूर्यवंशी राजाओं के प्रमुख पर्यों में से एक माना जाता था ।

ऐसे करें छठी मैया की पूजा



नहाय खाय' और 'खरना' से शुरू होता है व्रत छठ पूजा से दो दिन पहले 'नहाय खाय' होता है यानी चतुर्थी के दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर चावल, दाल और लौकी की सब्जी बना कर भोजन किया जाता है। इसमें देसी घी और सेंधा नमक का प्रयोग होता है। इसे 'नहाय खाय' कहते हैं। इसके अगले दिन पंचमी की शाम को शुरू होता है 'खरना' का व्रत। पूरे दिन सूर्य देव की उपासना के बाद व्रती इस दिन शाम को खीर का प्रसाद खाती है जिसके बाद यह प्रसाद सभी लोगों के बीच बांटा जाता है। 'खरना' के दूसरे दिन किसी तालाब या नदी
किनारे जा कर डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्थात दूध अर्पण करते हैं। छठ पूजा के तीसरे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का पारणा करते हैं यानी व्रत का शुभारंभ कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को और समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस तरह व्रतधारी बिना अन्न-जल
के लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। 

तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन देसी घी में प्रसाद तैयार करते हैं। 

इसके बाद फल, हल्दी, अदरक, नारियल, आंवला आदि को प्रसाद के रूप में कच्चे बांस की बड़ी डाली या पीतल की परात में रख कर किसी नदी, नहर या फिर तालाब के किनारे लेकर जाते हैं। इसमें एक कच्चे बांस की सुपेली (छोटा सूप) भी होता है। इन्हें लेकर व्रती पूरे परिवार के साथ अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठ व्रती एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान सम्पत्र करते हैं और सूर्यास्त के बाद घर लौटते हैं। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को
अर्घ्य दिया जाता है। व्रती उसी स्थान पर और उसी तरह के सामानों के साथ पुनः इकट्ठा होते हैं और उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर वापस लौटते हैं। इसके बाद गांव के पीपल के पेड़ को जल चढ़ाते हैं और व्रत का पारणा करते हैं। पूरे व्रत के दौरान व्रती जमीन पर सोते हैं और सात्विक रहते हैं। महिलाएं नया वस्त्र यानीसारी और पुरुष पीली धोती पहनते है।




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